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प्रकाशमान प्रज्ञा-प्रदीप महावीर, दयानन्द, रामतीर्थ

डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’ दीपावली के दिन अमावस्या की रात में जब गहन अंधकार से जूझने का संकल्प लेकर अनन्त दीप धरा पर जल उठते हैं और ज्योति-दान देकर धरा को तिमिर से मुक्ति दिलाते हैं, तब मानवता को शाश्वत् जीवन मूल्यों का अमृत प्रकाश देकर ‘महानिर्वाण’ की चिर शांति में लीन तीन प्रज्ञा-प्रदीपों का […]
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डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’
दीपावली के दिन अमावस्या की रात में जब गहन अंधकार से जूझने का संकल्प लेकर अनन्त दीप धरा पर जल उठते हैं और ज्योति-दान देकर धरा को तिमिर से मुक्ति दिलाते हैं, तब मानवता को शाश्वत् जीवन मूल्यों का अमृत प्रकाश देकर ‘महानिर्वाण’ की चिर शांति में लीन तीन प्रज्ञा-प्रदीपों का स्मरण सहज ही हो आता है। इन चिर प्रकाशमान दिव्य दीपों ने समग्र विश्व को ‘समत्व चेतना’, ‘क्षमा’ एवं ‘राष्ट्र धर्म’ का अमृत प्रकाश देकर अनुप्राणित किया है और स्वयं विश्व-मानवता की अजर-अमर प्रेरणा के स्रोत बन गए हैं।
सम्य कत्व, सर्वोदय एवं समत्व की प्रभा संसार भर में विकीर्ण करने वाले जैन-तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने विश्व-समाज को ‘जियो और जीने दो’ के मूल मंत्र में ‘सहिष्णुता’ का अजेय संदेश दिया; प्राण लेने वाले हत्यारे को भी ‘प्राण दान’ देकर क्षमा-शक्ति को अनूठी गरिमा प्रदान की है चिन्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने और स्वयं में ही संपूर्ण ‘भारत राष्ट्र’ की उदात्त कल्पना को मूर्तिमान करने वाले युग पुरुष हैं वेदान्त वेत्ता स्वामी रामतीर्थ! नियति का विचित्र संयोग है कि इन तीनों महान आत्माओं का ‘महामिलन’ जगत् पिता परमात्मा की अनन्त ज्योति से ‘दीपावली के महापर्व’ को ही हुआ! वस्तुत: चिन्मय आत्मा और प्रकाश रूप दिव्य ब्रह्मï का यह महामिलन प्रज्ञा पुत्रों के लिए तो सच्चा और पावन ज्योति-पर्व ही है।

समत्व के अधिष्ठाता महावीर

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जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर स्वामी ने विश्व को युगान्तरकारी चिन्तन-मंत्र देकर संपूर्ण मानवता को ‘सर्वोदय-चेतना’ का दिव्य प्रकाश दिया है। सत्य यही है कि वर्धमान महावीर ने धर्म की प्रस्थापना नहीं की, बल्कि धर्म में समाज की खोई आस्था को पुन: प्रतिष्ठापित किया। जैनाचार्य मुनि समन्तभद्र ने तीर्थंकर महावीर को अत्यन्त सम्मान के साथ ‘सर्वोदय तीर्थ’ की संज्ञा प्रदान की है। वास्तव में, वर्धमान महावीर का ‘सर्वोदय’ तत्कालीन ‘वर्गोदय’ के विरुद्ध एक सबल एवं प्रखर वैचारिक क्रांति ही है। वर्धमान महावीर की वाणी गंूजकर घोषणा करती है—’जहां सबका उदय हो, वही सर्वोदय है।’
जैन-तीर्थंकर महावीर के इन शब्दों की सच्चाई और गहराई क्या हम विश्व-आतंकवाद से त्रस्त इराक, अफगानिस्तान, अमेरिका, भारत आदि देशों में होने वाले भीषण रक्तपात और जम्मू-कश्मीर में निर्दोष, निरीह व्यक्तियों की निरन्तर की जा रही हत्याओं से क्या नहीं समझ पाएंगे? वस्तुत: वर्धमान ने विश्व को राह दी थी, जो आज भी विद्यमान है, लेकिन धर्म के उग्र उन्माद से उत्पन्न ‘असहिष्णुता’ के घने कोहरे ने उस राह को ढक दिया है। असहिष्णुता के मूल तत्व ‘विग्रह’ से बचने के लिए ही वर्धमान महावीर ने मानवता को चार प्रकाश-सूत्र दिए थे। 1. अनेकान्त विचार 2. स्याद्वाद रूप वाणी 3. अहिंसा और 4. अपरिग्रह।
आज जब धार्मिक आग्रहों और आतंकवाद की विभीषिका से त्रस्त सारा विश्व कभी भी अणु युद्ध की ज्वाला में घिर सकता है, तब हमें आशा की एक किरण अगर कहीं दिख पड़ती है, तो वह महावीर के ‘समत्व-दर्शन’ में ही है, जिसकी आधार भूमि है सहिष्णुता! भगवान महावीर ने स्पष्टत: कहा है—’सह अस्तित्व की पहली शर्त है—’सहिष्णुता’ जिसके बिना यह संभव ही नहीं है’, इसीलिए वर्धमान महावीर ने विश्व-मानवता को अमृत-संदेश दिया—’जियो और जीने दो’! महावीर-चिन्तन के अनुसार चंूकि सभी प्राणियों में जिजीविषा है, अत: मरना कोई भी नहीं चाहता! यही कारण है कि जैन धर्म प्राणिवध का निषेध करता है। वर्धमान महावीर की ‘स्वतंत्रता’ मूलत: समानता ही है, जो ऐक्य कराती है।
सबसे बड़ी बात यह है कि महावीर का चिन्तन ‘मानव’ को केंद्र में रखता है, इसीलिए इसमें सहिष्णुता के साथ-साथ, ‘क्रांतिशीलता और प्रगतिशीलता’ के तत्व मौजूद रहे हैं। महावीर के इस चिन्तन से विश्व को सच्चा समाजवाद, सर्वोदय और सह अस्तित्व की खोई दिशा मिल सकती है। यह सत्य है कि राजकुल के अनन्त वैभव में जन्म लेने वाले वर्धमान महावीर ने समग्र विश्व को जीवन-दृष्टि देकर स्वयं को अनुपम ‘ज्योति दीप’ बना दिया। आज भी, इस दिव्य प्रज्ञा-प्रदीप का अमृत प्रकाश हिंसा, नफरत और अहंकार के गहन तिमिर से हमें मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है। दीप-पर्व पर प्रथम प्रज्ञा-प्रदीप वर्धमान महावीर को शतश: वन्दन एवं नमन्!

क्षमा के दिव्य दीप दयानन्द

भारत का इतिहास साक्षी है कि जन-जागरण की जो प्रखर लहर उन्नीसवीं शती मेंं आई थी, उसी का एक जाज्वल्यमान मोती हैं चिन्तक महर्षि दयानंद सरस्वती! आत्मबोध एवं जगत बोध के बीच की गहरी खाई को महर्षि दयानन्द ने अपने क्रांतिकारी चिन्तन से पाट दिया था। यह सत्य विश्व-इतिहास का स्वर्णिम अंग बन चुका है कि विष देकर प्राण लेने वाले अपने हत्यारे को ‘क्षमादान’ देकर महर्षि दयानन्द ने ‘क्षमा’ को स्वयं जिया है और अमृत बना दिया है।
स्वामी दयानन्द का युग सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भयंकर घटाटोप का युग रहा है। उस युग में इस्लाम और ईसाइयत के पक्षधर हिन्दुत्व के आधार और वेदों के अस्तित्व को ही चुनौती दे रहे थे। अनेक रूढिय़ों से ग्रस्त हिंदू-समाज में जन-जागरण का शंख फंूकते हुए महर्षि दयानन्द ने एक धर्म-योद्धा की तरह वैदिक धर्म एवं दर्शन की रक्षा करने का गुरुतर दायित्व पूर्ण किया। यह एक तथ्य है कि दयानन्द सरस्वती ‘स्वराज्य’ की चेतना के सूत्रधार बने और स्वयं अहिंदी भाषी होते हुए भी ‘हिंदी’ को भारत की राष्ट्रभाषा का गौरव देकर, राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने का बहुत बड़ा कार्य किया। विधवा-विवाह का प्रबलतम समर्थन करके महर्षि दयानन्द वस्तुत:  नारी उत्थान के अग्रदूत बन गए, तो दूसरी ओर ‘आर्य समाज’ की स्थापना करके उन्होंने रूढिय़ों के साथ-साथ अंध-विश्वासों पर प्रबलतम प्रहार किया। सामाजिक स्तर पर महर्षि दयानन्द ने अनाथालयों की स्थापना का आदर्श देकर अनाथ बच्चों की रक्षा और विकास का मार्ग प्रशस्त किया है।
इतिहास साक्षी है कि जागरण के इस मंत्र-दीप को अनेक बड़ी-छोटी बाधाओं के साथ ही विघटनकारी और दुराग्रही तत्वों से जूझना पड़ा। ‘बाल विवाह’ का विरोध और विधवा-विवाह का समर्थन महर्षि दयानन्द द्वारा किया जाना रूढि़वादियों को असह्य था, तब धर्म-परिवर्तन करके पुन: हिंदुत्व ग्रहण करने वालों की शुद्धि का विचार तो हठवादियों और दुराग्रहियों को भला कैसे पसन्द आता? प्रबल विरोध के तूफानों में भी महर्षि दयानन्द ‘सहिष्णुता और क्षमा’ के दिव्य ज्योति दीप बनकर संत्रस्त और रूढिग़्रस्त भारतवर्ष को प्रकाश देते रहे। पं. जवाहरलाल नेहरू ने जागरण-दूत दयानन्द को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था—’आर्य समाज इस्लाम व ईसाइयत के विरुद्ध प्रतिक्रिया था। आन्तरिक रूप से वह संगठनात्मक तथा श्रेष्ठ सुधारात्मक आंदोलन था और बाह्यï आक्रमणों के बचाव के लिए महर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित रक्षात्मक दुर्ग था।’
वस्तुत: महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन-दर्शन हमें चुनौतियों से जूझने की शक्ति देता है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि ‘क्षमा’ के अभाव में ‘शक्ति’ केवल क्रूरता और संहार ही कर सकती है। सृजन तो क्षमा से ही संभव है। आज विश्व में सर्वत्र जो तनाव है, विश्व-युद्ध की आसन्न विभीषिका से हम संत्रस्त हैं, तो महर्षि दयानन्द का ‘क्षमा-दर्शन’ ही विश्व-मानवता को सारे तनावों से मुक्त करके प्रकाश दे सकता है। क्षमा-दीप दयानन्द को शतश: नमन्।

राष्ट्रवाद के दीप रामतीर्थ

केवल तेंतीस वर्षों का यादगार जीवन जीने वाले राष्ट्रवादी वेदान्त-चिन्तक स्वामी रामतीर्थ ने शताब्दियों की गुलामी से कुंठित करोड़ों भारतीयों को प्रखर राष्ट्रवाद का जो अमृत प्रकाश दिया, वही आज के सुलगते और सिसकते कश्मीर को बचा सकता है। जब भारतीय समाज, धर्म, संस्कृति और साहित्य बेमानी हो चुके थे, जब हमारे स्वाभिमान को राजशाही-सत्ता पैरों तले कुचल रही थी और पराधीनता के गहरे अंधकार में हम जब आशा की किरणें खोज रहे थे, तब स्वामी रामतीर्थ का ओज भरा स्वर पूरे भारत में गूंज उठा था—’आपके स्थापित किए हुए श्वेत ऊंचे-ऊंचे मंदिर और पाषाण के विष्णु आपके हृदय के ताप को शांत नहीं कर सकते। इसके लिए पूजो देश के उन भूखे नारायणों को और कड़ा परिश्रम करने वाले विष्णुओं को।’
क्या राष्ट्रवादी वेदान्त वेत्ता स्वामी रामतीर्थ के इन शब्दों में माक्र्स का चिन्तन ही नहीं है? क्या भूखे-नंगे सर्वहारा भारत देश की पूजा का सन्देश देने वाले रामतीर्थ प्रगतिशीलता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते? तब निश्चय ही, प्रखर राष्ट्रवाद की चेतना का दीप जलाकर पराधीनता के अंधकार से लडऩे वाले रामतीर्थ आज भी पूर्ण रूप से प्रासंगिक हैं और वरेण्य भी हैं।
हमारा इतिहास इस सत्य की साक्षी देता है कि जब भारत में स्वामी रामतीर्थ का उदय हुआ, उस समय भारत में धर्म, जाति, वर्ण एवं भाषा-भेद के नाम पर भयंकर विद्वेष की ज्वालाएं धधक रही थीं। दूसरी ओर, राष्ट्रीय-चेतना के अभाव में हम ‘स्व-चेतना’ भी भूल चुके थे। उसी समय राष्ट्रवाद के प्रबल पोषक स्वामी रामतीर्थ का स्वर गूंज उठा था—’व्यक्तिगत और स्थानीय धर्म को किसी प्रकार राष्ट्रीय-धर्म से ऊंचा स्थान नहीं देना चाहिए।’ वस्तुत: वैचारिक रूप से जाति, धर्म, वर्ण, संप्रदाय आदि में बंटे भारतीयों के लिए यह स्वर असाधारण चुनौती का स्वर था, जिससे पूरा भारत एकबारगी हिल उठा।
सत्य यही है कि राष्ट्रवाद के दीप स्वामी रामतीर्थ का जीवन दर्शन ‘भारत’ को केंद्र में रखता है। प्रखर राष्ट्रवादी रामतीर्थ को स्वयं को ही ‘भारतवर्ष’ कहते थे, इसीलिए वे गर्व से यह कह सके हैं—’यह अनुभव करके कि सारा भारतवर्ष प्रत्येक भारतवासी में मूर्तिमान है, प्रत्येक भारत-सपूत को संपूर्ण भारत की सेवा करनी चाहिए। आखिर कहां खो गया यह राष्ट्रवाद? क्यों भूल गए भारत के लोग स्वामी रामतीर्थ के इन शब्दों को? आज जब बाहर और भीतर से ‘भारत’ को तोडऩे के कुचक्र और षड्यंत्र रचे जा रहे हैं, तब क्या हमें ‘भारतवर्ष’ ही नहीं बनना चाहिए? निश्चय ही, स्वामी रामतीर्थ का प्रखर राष्ट्रवाद हमें आज सर्वोपरि रूप में चाहिए। हमें स्वीकार करना ही होगा कि केवल पंजाबी, कश्मीरी, मराठी या मलयाली आदि बनकर नहीं, बल्कि ‘भारतीय’ बनकर ही हम आज अपने राष्ट्र की एकता, अखण्डता और संप्रभुता की रक्षा कर सकते हैं। स्वामी रामतीर्थ का राष्ट्रवाद आज सर्वाधिक प्रासंगिक हो गया है। प्रखर राष्ट्र-दीप स्वामी रामतीर्थ को शतश: नमन्! दीपावली-पर्व पर जगमग असंख्य ज्योति-दीपों में कहीं इन तीन प्रज्ञा-प्रदीपों का कृतज्ञ भाव से हम स्मरण कर सकें, तो निश्चय ही, हमारी दीपावली प्रकाश से जगमग हो जाएगी।

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